जिंदगी की किताब के कुछ पन्ने ऐसे भी होते हैं सोचा ना था

>> 27 February 2009


वो शादी नहीं करना चाहती ... बस अब यूँ ही ऐसे ही जिये जाना चाहती है ...अब खुद पर उसे विश्वास नहीं कि वो कभी किसी को प्यार कर पायेगी...किसी के साथ जिंदगी गुजार पायेगी ...कोई नहीं कह सकता उसके दोस्तों में से कि ये वही लड़की है जो हमेशा चहचहाती थी, मुस्कुराती थी .....जिसे प्यार से इतना प्यार था कि उसके प्यार पर भी प्यार आता था
घर वाले समझा समझाकर अब उस घडी का इंतज़ार करते हैं ...जब उन्हें पहले जैसी उनकी बेटी मिल जायेगी

अब उसे प्यार से नफरत सी हो गयी है ....आखिर हो भी क्यों ना ...कभी उस दर्द को किसी ने रूह में महसूस नहीं किया .... जिसे वो दिलो जान से प्यार करती थी ...तीन साल जिसने हाँथों में हाँथ डाल कदम से कदम मिलाये ....वो इंसान जो हमेशा जताता था कि उस से बढ़कर उसके लिए कोई नहीं ...वो ऐसा करेगा ....कौन सोच सकता था

तीन साल तक साथ घूमा, कहता था वो इस दुनिया में सबसे ज्यादा उसे चाहता है ....अगर वो उसे न मिली होती तो वो कब का मर गया होता ....दिन भर फ़ोन पर बात, ऑफिस में बात, रेस्टोरेंट में बात, साथ फिल्म देखना, खाना पीना ...हर ख़ुशी हर गम में शामिल करना

और उस इंसान ने माता पिता की मर्ज़ी से , खुद की मर्ज़ी से ख़ुशी ख़ुशी किसी और के साथ शादी तय कर ली .....और उसे पता भी चला तो कब ...जिस दिन उस की शादी होनी थी ....वो भी किसी दोस्त ने फ़ोन करके बताया .... और वो उसे चाहने वाला उसे शादी होने से एक दिन पहले तक फ़ोन से बात करता रहा ....उसे एक पल के लिए भी महसूस नहीं होने दिया कि ऐसा कुछ हो रहा है ....उसने उसे बताने की जहमत तक नहीं उठाई .....

वो पल, वो घडी उसे भुलाये नहीं भूलती ...जिस पल उसे पता चला कि जो उसे तीन साल तक प्यार करता रहा ...तीन साल तक उसके मन पर छाया रहा ....उसने उसे खुद बताने तक की नहीं सोची .....और जब उसे फ़ोन किया तो यह कह कर काट दिया कि बाद में बात करता हूँ ...उसने मिन्नतें की कि वो बस एक बार मिलना चाहती है ...आखिर देखना चाहती है कि उसमे इतनी हिम्मत आई कहाँ से ...उसकी आँखों में झांकना चाहती है ...पर उस ने साफ़ इनकार कर दिया

सच में ऐसे में तो किसी का दिल क्या ...उसकी रूह तक छलनी छलनी हो जाये ....वो तो नेहा है जो अपनी लाश अपने कन्धों पर उठाये हुए है ....जीना चाहती है अपने माता पिता की खातिर ...कहती है अनिल अब तुम ही बताओ क्या मैं जिंदगी में किसी से प्यार कर सकूंगी .... क्या में किसी को जिंदगी में ख़ुशी दे सकूंगी .....
और मैं उसकी बेबस, रुआसू आँखों को देख रो दिया ...

एक बार फिर से एक पुरुष के ऐसे रवैये ने मेरे सर को झुकाने पर मजबूर कर दिया ..... ऐसे में क्या मैं नेहा को समझाता ...क्या उसे कहता .....उस पल मेरी भी रूह छलनी सी हो गयी .....
जिंदगी की किताब के कुछ पन्ने ऐसे भी होते हैं सोचा न था .....किसी किसी की जिंदगी तो ऐसे पन्नो में ही सिमट कर रह जाती है

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13 comments:

सुशील छौक्कर 28 February 2009 at 10:37  

किसी किसी की जिंदगी तो ऐसे पन्नो में ही सिमट कर रह जाती है।
दोस्त जिदंगी पन्नों में सिमट कर नही रहनी चाहिए। वहाँ से निकल कर खिलनी चाहिए। कही पढा था।
खुशी तितली की तरह होती हैं। जब आप उसके पीछे जाऐगे तो वह आपके पकड़ में नही आऐगी। पर जब आप चुपचाप अपने काम में लग जाऐगे तो तितली चुपचाप आकर आपके कंधे पर बैठ जाऐगी।

कुश 28 February 2009 at 10:49  

अपने ख़ाके में भी ऐसे कई किससे है.. किस किस कि बात करू.. शायद इमोशन्स ख़त्म हो रहे है.. ज़रूरत है प्रॅक्टिकल होने क़ी..

Unknown 28 February 2009 at 12:05  

सच में ऐसे दर्द से तो रूह ही छलनी हो जायेगी .....सच ही कहा है आपने जिंदगी की किताब के कुछ पन्ने ऐसे भी होते हैं ..........

डॉ .अनुराग 28 February 2009 at 13:44  

दुनियादारी का झंडा उठायो बच्चे ....उसकी गली में घुसे नहीं हो लगता है अब तक....

दिगम्बर नासवा 28 February 2009 at 14:38  

बहूत वेदना भरा लिखा है.........सच लिखा है, ऐसा होता है दुनिया में, पर वक़्त हर घाव को भर देता है, सब्र रखना ही सुखद है

शोभा 28 February 2009 at 16:16  

बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।

अनिल कान्त 28 February 2009 at 16:41  

अनुराग जी आपके लिए विशेष : -

कोई न हमसे पूँछे
कि गम हमें क्या है
वरना हम पूंछ बैठेंगे
कि इस गम की दवा क्या है

जिस गली से हम हैं गुजरे
उस गली का पता
हम किसी को देते नहीं

डरते हैं कि कोई आकर
हमसे ना पूंछ बैठे
कि बच्चू आखिर माज़रा क्या है

अनूप शुक्ल 28 February 2009 at 19:27  

संवेदनशील पोस्ट!

डॉ .अनुराग 28 February 2009 at 20:05  

priy anil
meri tarah savedansheel insaan ho aor aisa insaan dukh paata hai ..isliye snehvash likha tha ..apni ek purani post se likha baant raha hun..


क्नोलोजी के इस युग में क्या सब कुछ बदल गया है ? पढ़-लिख कर हमारी सोच की ताकत उस गली की ओर मुड गयी है जिसमे सिर्फ़ अपने फायदे -नुकसान है ,जिसके मुहाने पर बड़ा बड़ा दुनियादारी लिखा हुआ है .
रिक्शे वाला अब भी हाथ से पसीना पोछता है ,मंजिल पर पहुंचाकर सहमे सहमे पानी मांगता है ओर उसे अगर फ्रिज का ठंडा पानी गिलास में भर कर दे दिया जाए तो असहज हो उठता है ,उसे इसकी आदत नही है वो फ़िर भी अपनी हथेली में पानी उडेल कर ऑक से पीता है

अनिल कान्त 28 February 2009 at 21:54  

अनुराग जी आप मेरे बड़े भाई हैं .... आपका कहा हुआ मेरे लिए सदैव दिल में रहेगा ..... और कुछ न कुछ सीखने को मिलेगा ..... आप जब भी टिप्पणी करते हैं तो उसमे कुछ ख़ास होता है और जो दिल को अच्छा भी लगता है ...आप सदैव यूँ ही मार्गदर्शन करते रहे ...

आपका अनुज
अनिल कान्त

Asha Joglekar 1 March 2009 at 14:17  

.किसी किसी की जिंदगी तो ऐसे पन्नो में ही सिमट कर रह जाती है ।
बहुत ही भावपूर्ण कहानी ।

jyoti sharma 23 April 2012 at 15:30  

सब कुछ बिलकुल वैसा ही है जो जिदंगी ने कभी किसी मोड पर मेरे किसी अपने के साथ किया था और वो आज तक शायद इन सब को भुला नही पाई है। आज भी उसके नाम से उसकी आँखे भर आती है वक्त जख्म भरता नही बल्कि और भी गहरे कर देता है।

swati dhall 23 April 2012 at 15:34  

यकीनन वक्त ज़ख्मो को जरुर भर देता है पर उनकी यादो की खलिश तो शायद ये वक्त भी नही मिटा सकता। ..........

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