'इत्तेफाक' एक प्रेम कहानी

>> 16 June 2009

ऐसा नहीं था कि जो हो रहा था मैं इन सब से बेखबर था....लेकिन शायद मैं अपने वजूद की तलाश में था....मैं खुद की तलाश में था....और इसी तलाश में कब उससे टकरा गया पता ही नहीं चला....ये भी एक अजीब इत्तेफाक है कि उसका और मेरा मिलना भी एक इत्तेफाक से हुआ.....ये इत्तेफाक भी बड़े अजीब होते हैं....कभी कभी जिंदगी के मायने ही बदल देते हैं

किताबों में डूबे रहना मेरा शौक भी था और सच कहूं तो मेरी कमजोरी कह लें या एकमात्र सहारा....या तो किताबें मुझे तलाशती या मैं किताबों को....इसी तलाश में मेरा एक दिन उसी जगह जाना हुआ जहाँ मैं अक्सर जाया करता....उस किताब वाले के पास जहाँ एक सी शक्लों वाले लोग अक्सर दिखाई देते...हाँ शायद पढ़ते पढ़ते सबकी शक्लें एक सी ही लगती मुझे....या उन सब ने एक सी किताबे पढ़ पढ़ कर एक सी शक्लें कर ली थीं...

उस रोज़ मैं बस वहाँ खड़ा उस किताब वाले को बड़ी तसल्ली से देख रहा था...सच कहूं तो उसकी शक्ल को पहचानने की पूरी कोशिश कर रहा था....कि इसकी शक्ल में भी आखिर कोई बात होगी....आखिर इसने इतनी किताबे बैची हैं...हो सकता है कुछ पढ़ी भी हों....वैसे तो कई बार वो बता चुका था कि वो अपने समय का 8 वीं पास है....वो बोला बाबूजी कौनसी किताब दूँ....

कुछ सोचकर गया नहीं सो कुछ बोलता....अंततः कई लोगों से सुन रखा था 'रसीदी टिकट' के बारे में....पर कभी मौका नहीं मिला उसे पढने का....या सच कहूँ कभी मन नहीं किया....और कभी किया भी तो वो किताब दुकान पर मौजूद ना होने की वजह से पढ़ी नहीं....मैंने उसे बोला कि 'रसीदी टिकट' मिलेगी क्या....वो हल्का सा मुस्कुराया और बोला हा साहब...सिर्फ आखिरी पीस ही बचा है....आपकी किस्मत अच्छी है....मैंने किताब हाथ में ली...और पर्स से पैसे निकाल उसे दिए....तभी एक आवाज़ आई जिसकी फरमाइश भी रसीदी टिकट थी....लड़की की आवाज़ थी....जो मेरे नजदीक ही खड़ी थी....अरे नहीं मैडम आखिरी ही थी जो अभी अभी इन साहब ने खरीद ली...वो लड़की मुझे देखती है....

पर मुझ से कुछ बोलती नहीं...कब तक आ जायेगी दोबारा....जी यही कोई हफ्ते दस दिन में आ जायेगी....इतना लेट....जल्दी नहीं आ सकती....मैडम हफ्ते दस दिन में ही मेरा किताबे लेने जाना हो पायेगा....मैं उनकी बातें सुन रहा था.....और मेरा आज भी उस किताब को ऐसा पढने का कोई ख़ास मन ना था....मैंने कहा आप ले लीजिये इसे....आप पढ़ लीजिये...वैसे भी मेरा अभी मन नहीं....मैं बाद में पढ़ लूँगा....वो थोडी खुश सी हुई....वो अपने पर्स से पैसे निकालने लगी...अरे क्या कर रही हैं आप...पैसे रहने दीजिए...जब आप पढ़ लें तो इन बाबा को किताब दे जाना मैं इन से ले लूँगा...

पक्का आपको अभी नहीं पढ़नी....कहीं आप मेरी वजह से तो नहीं ऐसा कर रहे....मैं मुस्कुराया....मैंने कहा रख लीजिये...उसने किताब अपने हाथ में ले ली....मैं फुटपाथ पर पैदल चलने लगा....वो भी ना जाने क्यों पैदल ही चलने लगी...वो चाहती तो रिक्शा कर सकती थी....मैं तो ऐसा ही था...पैदल चलना मेरा शौक ही हुआ करता था....

वो साथ चलते हुए बोली थैंक यू.....मैं मुस्कुरा दिया....मैंने कहा पढ़ लीजिये अच्छी लगे तो बताना...मैं भी पढ़ लूँगा....वो भी हल्का सा मुस्कुरा दी....तो क्या आप इधर रोज़ आते हैं....हाँ आप कह सकती हैं....जब भी मन बेचैन सा होता है चला आता हूँ.....हाँ वो पहले भी मैंने एक बार आपको यहाँ देखा है....अच्छा.....वो बोली लगता है आप किताबों का बहुत शौक रखते हैं.....मैं बोला क्यों आप नहीं रखती...किसी और के लिए ले जा रही हैं.....वो हँस दी अरे नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं है ....मैं उतना नहीं पढ़ती शायद जितना आप पढ़ते हों....

अच्छा क्या करते हैं आप....ऐसा कुछ ख़ास नहीं पर फिर भी....एक बैंक में मुलाजिम हूँ....वो हँस दी...मुलाजिम....मैंने हँसते हुए पूँछा और आप....जी मैं कॉलेज में लेक्चरर हूँ....तभी शायद रास्ता ख़त्म सा हुआ....और मेन रोड आ गया....वो दोबारा शुक्रिया अदा करती हुई बोली....अच्छा ठीक है अब मैं चलती हूँ.....मैंने कहा ठीक है....

कुछ था जो होना था....शायद उस खुदा ने कुछ सोच रखा था....अभी तक मैं ये नहीं जान पाया था कि आखिर आज जो हुआ वो सिर्फ एक घटना थी या ऐसा इत्तेफ़ाक जो मेरा हाथ पकड़ कर कहीं ले जाना चाहता है....खैर जो भी था....मैं उस रोज़ समझ नहीं सका....करीब दो रोज़ बाद मेरा फिर उधर जाना हुआ....मैं पैदल ही चला जा रहा था उस फुटपाथ पर...उस से आज में फिर टकरा गया.....वो पीछे से रिक्शे पर आ रही थी....शायद उसकी मुझ पर नज़र पड़ी....उसने कहा अरे सुनिए....मैंने पीछे मुड़कर देखा....वो रिक्शे से उतरी....और मुस्कुराती हुई मेरे पास आई...बोली अरे ये तो बहुत अच्छा हुआ कि आप मुझे मिल गए....मैं आपकी ही किताब वापस करने जा रही थी.....मैंने कहा ख़त्म कर दी...वो बोली हाँ....मैं मुस्कुराया और बोला कि तुम तो हमारी भी उस्ताद निकली....वो हँस पड़ी....अरे मुझे किताब अच्छी लगी तो मैं खुद को रोक ना सकी.....मैंने कहा चलो अच्छी बात है

उसने कहा कि चलो कहीं बैठें....कॉफी पीते हैं....मैंने कहा हाँ यहीं पास में एक रेस्टोरेंट है....वो अच्छी कॉफी बनाता है....हम दोनों पैदल ही फुटपाथ को नापते हुए चल दिए....शायद उसके साथ चलना मुझे अच्छा लग रहा था....कुछ ही देर में रेस्टोरेंट आ गया.....

आगे जारी है
आगे की कहानी के लिंक यह हैं:
दूसरा भाग
अंतिम भाग

19 comments:

Neeraj Rohilla 17 June 2009 at 02:52  

आगे का इन्तजार है।
इस मुये इंटरनेट ने अब कहीं का न छोडा, सारी किताबे इंटरनेट पर ही खरीदी जाती हैं। लेकिन इस हफ़्ते समय निकालकर मेरे पडौस वाले हाफ़-प्राईस बुकस्टोर जरूर जाऊँगा। रसीदी टिकट तो नहीं मिलेगी, कोई और सही :-)

RAJNISH PARIHAR 17 June 2009 at 07:49  

आप भी ना....टी वी सीरियल की तरह शेष अगले हफ्ते का ठप्पा लगा कर चले गए....चलो भाई करते है इंतजार...

Unknown 17 June 2009 at 08:39  

rochak
atyant rochak !

सुशील छौक्कर 17 June 2009 at 08:41  

हम तो भाई एक साथ ही पढेगे। दूसरी पोस्ट का इंतजार।

दीपा सिंह 17 June 2009 at 08:44  

क़हानी रोचक और उत्सुकता से भरी है आगे का इंत्जार है

Udan Tashtari 17 June 2009 at 09:10  

जबरदस्त..अब इन्तजार है.

Anil Pusadkar 17 June 2009 at 11:24  

अब ब्रेक के लिये तुम्हे कुछ कह भी तो नही सकते। अपनी खुद की गाड़ी ब्रेक पर ब्रेक लगा कर चला रहे हैं। चलिये कर लेंगे इंतज़ार्।

अन्तर सोहिल 17 June 2009 at 11:34  

बेसब्री से अगली कडी का इंतजार है।
नमस्कार स्वीकार करें।

vandana gupta 17 June 2009 at 13:01  

aage ki kahani ka intzaar hai.

दिगम्बर नासवा 17 June 2009 at 13:08  

तन्मयता से पढ़ते हुवे जा रहा था.................फिर अचानक.............आगे जारी है..........
अनिल जी ऐसे ना मारा करो भाई............

विवेक रस्तोगी 17 June 2009 at 17:00  

सही बात है जब किताब अच्छी लगती है तो उसे खत्म करने तक चैन नहीं मिलता है।

इंतजार है अगले भाग का...

Shahid Ajnabi 17 June 2009 at 17:02  

अनिल जी,
बड़ी तन्मयता से पढ़े जा रहा था. आगे जरी है..मजा ख़राब कर दिया. एक टीबी चैनल की तरह.. खैर..
शरुआत अच्छी है.. अब देखते हैं.. क्या शमां बाँधता है.

शाहिद "अजनबी"

निर्मला कपिला 17 June 2009 at 17:11  

फिर आगे क्या हुया इसी इन्तज़ार मे --- अच्छी शुरुआत बधाई

रंजना 17 June 2009 at 17:16  

Rochak katha....agli kadi ki pratiksha rahegi...

Science Bloggers Association 17 June 2009 at 17:22  

रोमैन्टिक कहानियों में आपका जवाब नहीं।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

प्रिया 17 June 2009 at 21:48  

wah! kahani to bahut interesting hain.... aanko ke saamne puri film ghoom gai.....next post kariye jaldi se

preposterous girl 19 June 2009 at 10:09  

When u wrote this part, I dnt knw y I kept this unread in my reader.. Coz usually as soon as I see ur new post I read it asap.. but this time somethin stopped me..Same with the the next part.. But today when i saw 3 pending posts to read in ur blog..I jumped on to ur blog..
And when I reached the end of the 1st part.. and read to be continued.. then I knew y I was procastinating reading the posts..
A worthwile delay indeed for me.. :)

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