मुझे तुम्हारी चाहना है !

>> 02 April 2010

उन खर्च होते हुए चन्द जमा दिनों में से, उस एक शाम को जब सूरज सुस्ताने लगा और पंक्षी वापस अपने घरों को लौट चले थे । मैंने कुछ कदम चल लेने के बाद उसकी हथेलियों को अपनी अँगुलियों से छूते हुए अपने होने का आभास कराया था । मेरे होने का, नहीं शायद उस एहसास को परे किया था जो मध्य के उस सन्नाटे में शामिल था । उन बचे हुए अंतिम दिनों में, मैं उसे सब कह देना चाहता था । लेकिन क्या वह समझ पाएगी उस चाहना को ? जब मैं उससे कहूँगा कि मेरे अन्दर एक चाहना ने जन्म ले लिया है । जो दिन ब दिन बढती ही जाती है । या उसे सीधे शब्दों में कह देना कि मुझे तुमसे प्रेम है । नहीं यह न्याय नहीं होगा उस चाहना के साथ । यह महज प्रेम नहीं है । यह प्रेम के साथ कदम से कदम मिलाकर बहुत कहीं आगे बढ़ गयी वह अनुभूति है जिसे मैं 'चाहना' नाम दे रहा हूँ । तो क्या मैं उससे उस चाहना को जता सकूँगा ? क्या वह चाहना शब्दों में सीमित होकर अपना विस्तार ले सकेगी ?

क्या मैं उसे बता सकूँगा कि वह चाहना रंग, रूप में कैसी है ? कह सकूँगा कि उस चाहना का तुम्हारे रंग, रूप से कोई सम्बन्ध नहीं । उस चाहना का तुमसे बहुत गहरे तक सम्बन्ध है । मेरे उन अकेले के सभी क्षणों का मिश्रित स्वरुप जब तुम्हें ना पा पाने के बाद का अनन्त दुःख मुझे आ घेरता है । मुझे घूरता है, मुझे तनहा और वीरान कर जाता है । वहीँ से उपजती है वो चाहना । उस चाहना का सम्बन्ध तुम्हे पा लेने और ना पा पाने से जुड़ा हुआ है । तुम्हें पा लेना ही उस चाहना की पहली और अंतिम इच्छा ।

उसने अपने कदमों को उस आखिरी के मोड़ पर रोकते हुए कहा था "अच्छा तो मैं चलूँ ।"

तब मैंने उसके हाथ को मजबूती से थामते हुए कहा था "कहाँ ? कहाँ जा सकोगी तुम । मेरी चाहना तुम्हें हर जगह खोज लेगी ।"

उसने मुस्कुराते हुए कहा था "क्या बोल रहे हो ?"

मैंने उसकी आँखों में झांकते हुए कहा था "मुझे तुम्हारी चाहना है । तुम्हें हमेशा के लिये पा लेने की चाहना । हर क्षण के लिये । जो उस प्रेम से भी कहीं गहरी है । जो प्रेम से शुरू होकर उस अनन्त को चली जाती है, जहाँ से उसका विस्तार होता है । हाँ वही चाहना है मुझे तुम्हारी ।"

उस पल उसने उस आखिरी के मोड़ पर बढ़ने से पहले मुझे गले लगा लिया था । कभी ना ख़त्म होने वाली उस चाहना के सफ़र में वह मेरी हमकदम हो चली थी ।

16 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) 2 April 2010 at 21:03  

मन के एहसासों को खूबसूरत शब्दों में बुना है...बधाई

richa 2 April 2010 at 23:21  

"यह प्रेम के साथ कदम से कदम मिलाकर बहुत कहीं आगे बढ़ गयी वह अनुभूति है जिसे मैं 'चाहना' नाम दे रहा हूँ...."
ख़ूबसूरत नाम... और ख़ूबसूरत एहसास की ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...

Anil Pusadkar 3 April 2010 at 12:00  

बहुत दिनों बाद तुम्हारे ब्लाग पर आया हूं और फ़िर से तुम्हारी तारीफ़ के लिये शब्द ढूंढने पड़ रहे हैं।सच मे तुम शब्दों के जादूगर हो।

tum to fir ek haqeeqat ho......... 3 April 2010 at 12:34  

ha sachmuch aap shabdo ke jaadugar hai....

Anonymous,  3 April 2010 at 13:49  

"उन खर्च होते हुए चन्द जमा दिनों में से ....मेरी हमकदम हो चली थी।"
धाराप्रवाह - प्रशंसनीय रचना के लिए हार्दिक बधाई

संजय भास्‍कर 3 April 2010 at 14:55  

ख़ूबसूरत एहसास की ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति...

विधुल्लता 4 April 2010 at 09:34  

एक रेशमी एहसास ...सी खूबसूरत रचना

दिगम्बर नासवा 4 April 2010 at 15:09  

आपकी चाहान आपकी चाहत तक पहुँच गयी ... जान कर अच्छा लगा ...
हमेशा की तरह दिल में उतार गयी आपकी कहानी ...

अपूर्व 4 April 2010 at 20:30  

शब्दों मे खूबसूरत अहसास पिरो कर आप ऐसे जानलेवा दृश्य रचते हैं..जो जेहन के कैनवस पर लम्बे वक्त तक छपे रह जाते हैं..इस चाहना के होने के अहसास को जितना कहा गया है..उससे कहीं ज्यादा अनकहा, अव्यक्त रह जाता है..मीठी कशिश सा..पढ़ने वाले के दिल मे..यही एक कलम की सफ़लता है..अद्भुत है दोस्त!

Anonymous,  4 April 2010 at 21:51  

..." यह महज प्रेम नहीं है । यह प्रेम के साथ कदम से कदम मिलाकर बहुत कहीं आगे बढ़ गयी वह अनुभूति है जिसे मैं 'चाहना' नाम दे रहा हूँ..." ise kehte hain khoobsurat shabdo ko pirona..

रंजू भाटिया 5 April 2010 at 14:52  

मन के गहरे एहसास और लफ़्ज़ों से सजी यह बहुत पसंद आई शुक्रिया गहरा असर छोड़ा है इस ने दिल पर

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