ज़िंदगी के साइड इफेक्ट्स

>> 13 July 2015

कहीं किसी रोज़ में मिलूँगा तुमसे किसी अजनबी की तरह. हम जानते हुए भी नहीं बोलेंगे एक लफ्ज़ भी. तुम मुझे भुला दिए हुए किसी ख्वाब सा सोचोगी फिर भी. मैं जानकार भी अनजान बना रहूँगा तुम्हारी उपस्थिति से. क्या इतने पर भी भुला दी जाएँगी चाँदनी रात में तेरी गोद में सर रखकर जागी रातें. क्या भुला दोगी तब तक, तेरे गालों की हँसी पे लुटाया था हर दिन थोडा थोडा, क्या मेरे सीने में तब भी धड़केगा दिल वैसे ही.
क्या चाहकर भी नहीं जानोगी उस कही कविता के हश्र के बारे में. जिसे किसी एक रोज़ सिरहाने पर रखी किताब में पढ़ना चाहा था तुमने. क्या याद होगा तुम्हें वो नाम अब तक जो पुकारा करती थीं मोहब्बत भरे दिनों में. क्या साँसे वैसी ही चलती होंगी या सीख लिया होगा तुमने कोई नया कैलकुलेशन.
जब हम मिलेंगे फिर से कभी कहीं. क्या तुम उधार दे सकोगी अपनी मुस्कराहट उस पल के लिए. या सिमट जाओगी खुद में ही और कहोगी कि तुम बेहतर हो. और पूँछ कर तुम मिटा देना चाहोगी कि तुम कैसे हो, पुरानी सभी संभावनाओं को.
मैं फिर भी उस दिन को भर लूँगा अपनी आँखों में और सोचूँगा कि तुम अब भी नहीं उबरी हो जिंदगी के साइड इफेक्ट्स से.

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