लड़की और शहर (भाग-2)
>> 13 August 2015
प्रारम्भ के दिनों में जब लड़की इस शहर आई थी तब उसका छोटा शहर उसके साथ चिपका रहता था.वहां की पहचान और आदतें उसके चेहरे पर जमी हुईं थीं. उनसे पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता. एक शहर आपके साथ चिपका हुआ चले और वो आपके चेहरे को भी न छोड़े. वक़्त उसे खुरच खुरच के आपसे अलग करता है. फिर भी उसकी थोड़ी बहुत कतरने यहाँ वहां चिपकी रह जाती हैं.
जब वो अपनी शिफ्ट में जाने के लिए कैब में बैठी होती तो भी ये पहचानें उसके साथ चलतीं. छोटे शहर का अनजान डर उसे हरदम घेरे रहता. फिर वो धीरे धीरे अभ्यस्त हो गयी थी. कैब ड्राईवर बदले, रास्ते बदले और इस तरह करते करते उसका बदलना भी होता चला गया.
शोभित से उसकी पहचान कैब में साथ आते जाते ही हुई थी. जब वो और शोभित एक ही शिफ्ट में जाते थे. प्रारम्भ के दिनों में वह खुद से ही खुद को बाँधे रहती थी. बाद के दिनों में उसने अपनी गाँठे धीरे धीरे ढीली कर दी थीं. और फिर शोभित की बातों और मुलाकातों ने उन गांठों को पूरी तरह खोल दिया था.
शोभित इंजीनियरिंग किया हुआ था और कॉल सेंटर की जॉब शहर में टिकने के लिए पकडे हुए था. जब वो कॉलेज से निकला निकला था तो उसने अपने मतलब की नौकरी की बहुतेरी खोजबीन की लेकिन उनका कोई सिरा उसके हाथ में नहीं आया था. तब थक हार कर उसने कॉल सेंटर की नौकरी पकड़ ली थी ताकि वो शहर में टिका रहे और कॉल सेंटर की नौकरी के साथ साथ अपने मतलब की नौकरी खोजता रहे. वो मिली नहीं थी और उसको पाने के लिए उसने छोटे मोटे अलग से कोर्स करने भी प्रारम्भ कर दिए थे.
एक साल उनकी पहचान को एक दूसरे के किराये के कमरों तक पहुँचा चुका था. वे उतने ही नज़दीक आ चुके थे जितना आया जा सकता था. किराये के कमरों को उनकी पहचान हो चुकी थी. दीवार की खूँटी से लटका कैलेंडर, खिड़कियों पर टंगे परदे और कमरे के बीचों बीच लटका पंखा वैसे ही झूलते रहते जैसे कोई वहाँ हो ही न. उनकी पहचान किचन के बर्तनों, बालकनी के गमलों, टेबल पर रखी घडी, मोबाइल, और यहाँ वहां बिखरे पड़े रहने वाले कपड़ों सभी को हो गई थी.
ऐसी ही किसी बीती शाम को शोभित उसको पहली बार अपने कमरे पे लाया था. वे उतरती सर्दियों के बचे खुचे दिन थे. फरवरी में पेड़ों की पत्तियां तब झड़कर सड़कों पर उतर रातों को शोर मचाया करतीं. दोपहरें धुप के टुकड़ों में खुद को सेंक लेने के बाद सुस्ताती हुईं शाम से जा मिलतीं और रातें तब थोड़ी सर्द हो जाया करतीं लेकिन फिर भी कहीं कहीं थोड़ी गर्माहट बची रह जाती.
जैसे कि उसकी माँ सोचा करती थी कि लड़कियां सालों में तब्दील होने लगती हैं. वो सचमुच दिन, महीनों से गुजरती हुई साल बनने लगी थी. उस की इच्छाओं पर साल दर साल चढ़ते ही चले गए थे. और फिर एक समय ऐसा आता है कि इच्छाएं अपना सर उठाने लगतीं हैं और उनके सर कुचलना बेहद मुश्किल होता चला जाता है. इंसान फिर धीरे धीरे कमजोर होता है और फिर इच्छाएं अपने रास्ते खुद बना लेती हैं. हम उनको सही गलत के तराज़ू में ज्यादा दिनों तक तोल नहीं पाते. फिर अच्छी और बुरी हर तरह की इच्छाएं एक सी दिखने लगतीं हैं.
ऐसी ही उसकी और शोभित की इच्छाओं ने एक दूसरे को पहली दफा छुआ था, चूमा था और वे एक होकर नदी होकर बहने लगी थीं. उस कमरे में फिर वो नदी खूब खूब बहती. और वे उस नदी में डूबते उतराते. कभी उसमें अपनी चाहतों की नाव बना उसे चलता हुआ छोड़ देते तो कभी किनारे पे बैठ उसको नदी की धारा की दिशा में बहता हुआ देखते.
~आगे की कहानी बाद में~
1 comments:
i like it.........and hope better again and again
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